Tuesday, 13 December 2016

प्रतिकार।

क्षमा दया ताप त्याग मनोबल सबका लिया सहारा,
पर नरव्याध सुयोधन तुमसे कहो कहाँ कब हरा?







क्षमाशील हो रिपुसमक्ष तुम विनीत हुए जितना ही,
दुष्ट कौरवों ने तुमको कायर समझा उतनाही,







क्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास गरल हैं,
उसका क्या जो दंतहीन विषरहित विनीत सरल हैं?







तीन दिवस तक पंथ मांगते रघुपति सिंधुकिनारे,
बैठे पढते रहे छंद अनुनय के प्यारे प्यारे,







उत्तर मे जब एक नाद भी नहीं उठा सागर से,
उठी अधीर धधक पौरुष की आग राम के शर से,





सिंधु देह धर त्राहि-त्राहि कर आ गिरा शरण मे,
चरण पूजे दासता ग्रहण की, बंधा मूढ़ बंधन मे,







सच पूछो तो शर मे ही बसती हैं दीप्ती विनय की,
संधिवचन सम्पूज्य उसीका, जिसमे शक्ति विजय की,







सहनशीलता क्षमा दया को तभी पूजता जग हैं
बल का दर्प चमकता उसके पीछे जब जगमग हैं...






- क्रन्तिकवि रामधारी सिंह "दिनकर"

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