: 30 दिसंबर, 1943: ब्रिटिशराज से भारत की घोषित आजादी का पहला दिन
एक ऐसा दिन जिसे भारतीय इतिहास के पन्नों से बिलकुल गुम सा कर दिया गया। स्वतंत्रता के लिए लड़ने वाले अमर क्रांतिकारियों की सफलता के इस दिन को क्या सरकार,क्या जनता और क्या मीडिया सभी ने पूरी विस्मृत कर दिया। किसी ने सच ही कहा है “इतिहास जंग याद रखता है शहीद नहीं।”
आज से ठीक 72 वर्ष पूर्व भारत के दक्षिणी-पूर्वी अंडमान निकोबार द्वीप समूह से देश की आजादी की घोषणा की गयी थी।
नेताजी सुभाष चंद्र बोस के नेतृत्व में आजाद हिन्द फ़ौज ने अंग्रेजों के कब्जे से पूर्वी भारत के कई द्वीपों को आजाद करवा लिया। और आज के ही दिन वहाँ भारत के प्रतिनिधिकर्ता के रूप में आजाद हिन्द फ़ौज के ध्वज को फहराया गया।
नेताजी के नेतृत्व में हुई अस्थाई भारत सरकार की घोषणा
5 जुलाई 1943 को आजाद हिन्द फ़ौज की कमान सँभालते ही सुभाषचंद्र बोस ने सेना से ‘दिल्ली’ कूच करने का आह्वाहन किया। पूर्वी भारत के कोहिमा और इम्फाल के रास्ते विजय अभियान के शुरुआत की गयी।
महीनो संघर्ष के बाद 21 अक्टूबर को अंडमान निकोबार द्वीप समूह पर स्वतंत्र भारत की अस्थायी सरकार बनायी गयी।
अंततोगत्वा कई अन्य द्वीपों को मिलाकर 30 दिसंबर 1943 को इन द्वीपों पर भारतीय ध्वज फहरा कर आजाद भारतीय सरकार की घोषणा की गयी।
15 अगस्त 1947 को ‘दान’ और ‘कृपा’ में प्राप्त विभाजनकारी रक्तरंजित फव्वारों से लफेंदी आजादी से पूर्व दिसंबर 1943 में परतंत्र भारत के पहले आजाद क्षेत्र ‘स्वराज’ द्वीप को जापान,जर्मनी,कोरिया,फिलीपींस,इटली यहाँ तक की चीन सहित सभी पूर्वी एशियाई देशों ने मान्यता दे दी।
हालाँकि इनमें से ज्यादातर राष्ट्र ब्रिटिशों के विरोधी थे शायद इसीलिए भारतीय इतिहास के अंग्रेज लेखकों ने इस आजादी को ‘आजादी’ मानने से इंकार कर दिया। यह ऐसी जीत थी जो लड़कर और फिर जीतकर हाँसिल की गयी थी.चालीस हजार से ज्यादा वीर-वीरांगनाओ के शौर्य और बलिदान की वेदी से प्रस्फुटित पहली आजादी को इतिहास में इस ‘भेदभाव’ की दृष्टि से देखा जाएगा इसकी कल्पना सुभाष बाबू को कतई न रही होगी।
ये माना जा सकता है की ये आजादी पूर्ण नहीं थी और एक छोटे द्वीप समूह तक ही सीमित रह गयी थी। परन्तु यह ‘भीख’ भी नहीं थी इसे चापलूसी से नहीं वरन शौर्य और आत्मबल से प्राप्त किया गया था। इतिहास गवाह है की इसके बाद भी भारतीय शूरवीरों ने भारतमाता के स्वाधीनता के लिए प्रयास करते हुए अंग्रेजों पर जोरदार हमले किये। परन्तु अंग्रेजो के इंडियन एजेंट्स (जो की ‘नपुंसकत्व’ को अहिंसा करार दे रहे थे) ने इन रणबाँकुरों को सहयोग करने से मना कर दिया। इस प्रकार सुभाष बोस द्वारा स्वाभिमान से आजादी प्राप्त करने का सपना चूर-चूर हो गया।
अपने खून की कीमत पर भारत को आजाद करने की कसम खाने वाले देशभक्त योद्धाओं के योगदान को संकुचित राजनीति के तहत कागज़ के कुछ पन्नो में समेत दिया गया। ये वही महानतम योद्धा थे जिनके बारे में हिटलर कहता था की “यदि ये मेरे साथ हो जाएँ तो मै समूचे विश्व को जीत लूँगा।” हमारा दुर्भाग्य है की भारतीय इतिहास के इस सुनहरे अध्याय को आम भारतीय जनमानस से छुपा दिया गया वो भी इसलिए ताकी सुभाष बाबू और आजाद हिन्द फ़ौज को सिर्फ एक बाहरी सेना के रूप में दर्शाया जा
30 दिसंबर का दिन सहसत्राब्दियों से शौर्य और पराक्रम से युत भारतीय भूमि पर मढी हुई नपुंसकता और जड़ता के कलंक को धोने का दिन हैं। आज सुभाष बाबू और उनकी करिश्मायी सेना हमारे बीच नहीं है परन्तु उनका आत्मबल और तेज हमें आज भी प्रकाशित कर रहा है।
एक ऐसा दिन जिसे भारतीय इतिहास के पन्नों से बिलकुल गुम सा कर दिया गया। स्वतंत्रता के लिए लड़ने वाले अमर क्रांतिकारियों की सफलता के इस दिन को क्या सरकार,क्या जनता और क्या मीडिया सभी ने पूरी विस्मृत कर दिया। किसी ने सच ही कहा है “इतिहास जंग याद रखता है शहीद नहीं।”
आज से ठीक 72 वर्ष पूर्व भारत के दक्षिणी-पूर्वी अंडमान निकोबार द्वीप समूह से देश की आजादी की घोषणा की गयी थी।
नेताजी सुभाष चंद्र बोस के नेतृत्व में आजाद हिन्द फ़ौज ने अंग्रेजों के कब्जे से पूर्वी भारत के कई द्वीपों को आजाद करवा लिया। और आज के ही दिन वहाँ भारत के प्रतिनिधिकर्ता के रूप में आजाद हिन्द फ़ौज के ध्वज को फहराया गया।
नेताजी के नेतृत्व में हुई अस्थाई भारत सरकार की घोषणा
5 जुलाई 1943 को आजाद हिन्द फ़ौज की कमान सँभालते ही सुभाषचंद्र बोस ने सेना से ‘दिल्ली’ कूच करने का आह्वाहन किया। पूर्वी भारत के कोहिमा और इम्फाल के रास्ते विजय अभियान के शुरुआत की गयी।
महीनो संघर्ष के बाद 21 अक्टूबर को अंडमान निकोबार द्वीप समूह पर स्वतंत्र भारत की अस्थायी सरकार बनायी गयी।
अंततोगत्वा कई अन्य द्वीपों को मिलाकर 30 दिसंबर 1943 को इन द्वीपों पर भारतीय ध्वज फहरा कर आजाद भारतीय सरकार की घोषणा की गयी।
15 अगस्त 1947 को ‘दान’ और ‘कृपा’ में प्राप्त विभाजनकारी रक्तरंजित फव्वारों से लफेंदी आजादी से पूर्व दिसंबर 1943 में परतंत्र भारत के पहले आजाद क्षेत्र ‘स्वराज’ द्वीप को जापान,जर्मनी,कोरिया,फिलीपींस,इटली यहाँ तक की चीन सहित सभी पूर्वी एशियाई देशों ने मान्यता दे दी।
हालाँकि इनमें से ज्यादातर राष्ट्र ब्रिटिशों के विरोधी थे शायद इसीलिए भारतीय इतिहास के अंग्रेज लेखकों ने इस आजादी को ‘आजादी’ मानने से इंकार कर दिया। यह ऐसी जीत थी जो लड़कर और फिर जीतकर हाँसिल की गयी थी.चालीस हजार से ज्यादा वीर-वीरांगनाओ के शौर्य और बलिदान की वेदी से प्रस्फुटित पहली आजादी को इतिहास में इस ‘भेदभाव’ की दृष्टि से देखा जाएगा इसकी कल्पना सुभाष बाबू को कतई न रही होगी।
ये माना जा सकता है की ये आजादी पूर्ण नहीं थी और एक छोटे द्वीप समूह तक ही सीमित रह गयी थी। परन्तु यह ‘भीख’ भी नहीं थी इसे चापलूसी से नहीं वरन शौर्य और आत्मबल से प्राप्त किया गया था। इतिहास गवाह है की इसके बाद भी भारतीय शूरवीरों ने भारतमाता के स्वाधीनता के लिए प्रयास करते हुए अंग्रेजों पर जोरदार हमले किये। परन्तु अंग्रेजो के इंडियन एजेंट्स (जो की ‘नपुंसकत्व’ को अहिंसा करार दे रहे थे) ने इन रणबाँकुरों को सहयोग करने से मना कर दिया। इस प्रकार सुभाष बोस द्वारा स्वाभिमान से आजादी प्राप्त करने का सपना चूर-चूर हो गया।
अपने खून की कीमत पर भारत को आजाद करने की कसम खाने वाले देशभक्त योद्धाओं के योगदान को संकुचित राजनीति के तहत कागज़ के कुछ पन्नो में समेत दिया गया। ये वही महानतम योद्धा थे जिनके बारे में हिटलर कहता था की “यदि ये मेरे साथ हो जाएँ तो मै समूचे विश्व को जीत लूँगा।” हमारा दुर्भाग्य है की भारतीय इतिहास के इस सुनहरे अध्याय को आम भारतीय जनमानस से छुपा दिया गया वो भी इसलिए ताकी सुभाष बाबू और आजाद हिन्द फ़ौज को सिर्फ एक बाहरी सेना के रूप में दर्शाया जा
30 दिसंबर का दिन सहसत्राब्दियों से शौर्य और पराक्रम से युत भारतीय भूमि पर मढी हुई नपुंसकता और जड़ता के कलंक को धोने का दिन हैं। आज सुभाष बाबू और उनकी करिश्मायी सेना हमारे बीच नहीं है परन्तु उनका आत्मबल और तेज हमें आज भी प्रकाशित कर रहा है।
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